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अ꣣पां꣡ फेने꣢꣯न꣣ न꣡मु꣢चेः꣣ शि꣡र꣢ इ꣣न्द्रो꣡द꣢वर्तयः । वि꣢श्वा꣣ य꣡दज꣢꣯य꣣ स्पृ꣡धः꣢ ॥२११॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अपां फेनेन नमुचेः शिर इन्द्रोदवर्तयः । विश्वा यदजय स्पृधः ॥२११॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣पा꣢म् । फे꣡ने꣢꣯न । न꣡मु꣢꣯चेः । न । मु꣣चेः । शि꣡रः꣢꣯ । इ꣣न्द्र । उ꣢त् । अ꣣वर्तयः । वि꣡श्वाः꣢꣯ । यत् । अ꣡ज꣢꣯यः । स्पृ꣡धः꣢꣯ ॥२११॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 211 | (कौथोम) 3 » 1 » 2 » 8 | (रानायाणीय) 2 » 10 » 8


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमात्मा, जीवात्मा, वैद्य, राजा और सेनापति किस प्रकार नमुचि का संहार करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—अध्यात्म-पक्ष में। हे (इन्द्र) परमात्मन् व जीवात्मन् ! तुम (अपां फेनेन) पानी के झाग के समान स्वच्छ सात्त्विक चित्त की तरङ्ग से (नमुचेः) न छोड़नेवाले, प्रत्युत दृढ़ता से अपना पैर जमा लेनेवाले पाप के(शिरः) सिर को अर्थात् ऊँचे उठे प्रभाव को (उदवर्तयः) पृथक् कर देते हो, (यत्) जब (विश्वाः) सब (स्पृधः) पापरूप नमुचि के सहायक काम-क्रोध आदि शत्रुओं की स्पर्धाशील सेनाओं को (अजयः) जीतते हो ॥ द्वितीय—आयुर्वेद के पक्ष में।हे (इन्द्र) रोगविदारक वैद्य ! आप (अपां फेनेन) समुद्रफेन रूप औषध से (नमुचेः) शरीर को न छोड़नेवाले, दृढ़ता से जमे रोग के (शिरः) हानिकारक प्रभाव को (उदवर्तयः) उच्छिन्न कर देते हो, (यत्) जब (विश्वाः) समस्त (स्पृधः) स्पर्धालु, रोग-सहचर वेदना, वमन, मूर्छा आदि उत्पातों को (अजयः) जीतते हो ॥ तृतीय—राजा के पक्ष में।हे (इन्द्र) वीर राजन् ! आप (अपाम्) राष्ट्र में व्याप्त प्रजाओं के (फेनेन) कर-रूप से प्राप्त तथा चक्रवृद्धि ब्याज आदि से बढ़े हुए धन से (नमुचेः) राष्ट्र को न छोड़नेवाले, प्रत्युत राष्ट्र में व्याप्त होकर स्थित दुःख, दरिद्रता आदि के (शिरः) सिर को, उग्रता को (उदवर्तयः) उच्छिन्न कर देते हो, (यत्) जब (विश्वाः) समस्त (स्पृधः) हिंसा, रक्तपात, लूट-पाट, ठगी, तस्कर-व्यापार आदि स्पर्धालु वैरियों को (अजयः) पराजित कर देते हो ॥ चतुर्थ—सेनापति के पक्ष में। हे (इन्द्र) सूर्यवत् विद्यमान शत्रुविदारक सेनापति ! आप (अपां फेनेन) जलों के झाग के समान उज्ज्वल शस्त्रास्त्र-समूह के द्वारा (नमुचेः) न छोड़नेवाले शत्रु के (शिरः) सिर को (उदवर्तयः) धड़ से अलग कर देते हो, (यत्) जब (विश्वाः) सब (स्पृधः) स्पर्धा करनेवाली शत्रुसेनाओं को (अजयः) जीतते हो ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, उपमानोपमेयभाव ध्वनित हो रहा है ॥८॥

भावार्थभाषाः -

जैसे कोई वैद्यराज समुद्रफेन औषध से रोग को नष्ट करता है, जैसे राजा प्रजा से कर-रूप में प्राप्त हुए धन से प्रजा के दुःखों को दूर करता है और जैसे सेनापति शस्त्रास्त्र-समूह से शत्रु का सिर काटता है, वैसे ही परमेश्वर और जीवात्मा मनुष्य के मन की सात्त्विक वृत्तियों से पाप को उन्मूलित करते हैं ॥८॥ यहाँ सायणाचार्य ने यह इतिहास प्रदर्शित किया है—पहले कभी इन्द्र असुरों को जीतकर भी नमुचि नामक असुर को पकड़ने में असमर्थ रहा। उल्टे नमुचि ने ही युद्ध करते हुए इन्द्र को पकड़ लिया। पकड़े हुए इन्द्र को नमुचि ने कहा कि तुझे मैं इस शर्त पर छोड़ सकता हूँ कि तू मुझे कभी न दिन में मारे, न रात में, न सूखे हथियार से मारे, न गीले हथियार से। जब इन्द्र ने यह शर्त मान ली तब नमुचि ने उसे छोड़ दिया। उससे छूटे हुए इन्द्र ने दिन-रात की सन्धि में झाग से उसका सिर काटा (क्योंकि दिन-रात की सन्धि न दिन कहलाती है, न रात, और झाग भी न सूखा होता है, न गीला)।’’ यह इतिहास दिखाकर सायण कहते हैं कि यही विषय इस ऋचा में प्रतिपादित है। विवरणकार माधव ने भी ऐसा ही इतिहास वर्णित किया है। असल में तो यह कल्पित कथानक है, सचमुच घटित कोई इतिहास नहीं है ॥८॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मा, जीवात्मा, भिषग्, राजा च कथं नमुचिं घ्नन्तीत्युच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—अध्यात्मपरः। हे (इन्द्र) परमात्मन् जीवात्मन् वा ! त्वम् (अपां फेनेन) जलफेनवत् स्वच्छेन सात्त्विकचित्ततरङ्गेण (नमुचेः) न मुञ्चति, किन्तु सुदृढं बध्नातीति नमुचिः पाप्मा तस्य। पाप्मा वै नमुचिः। श० १२।७।३।४। (शिरः) मूर्धानम्, मूर्धवदुन्नतं प्रभावम् (उदवर्त्तयः२) उच्छिनत्सि। उत् पूर्वो वृतु वर्तने णिजन्तः, लडर्थे लङ्। (यत्) यदा (विश्वाः) समस्ताः (स्पृधः) पापाचरणस्य सहायभूताः कामक्रोधादिशत्रूणां स्पर्धमानाः सेनाः (अजयः) जयसि। जि जये धातोः कालसामान्ये लङ् ॥ अथ द्वितीयः—आयुर्वेदपरः। हे (इन्द्र) रोगविदारक वैद्य३ ! त्वम् (अपां फेनेन) समुद्रफेनरूपेण भेषजेन (नमुचेः) शरीरे दृढमवस्थितस्य रोगस्य (शिरः) हिंसकं प्रभावम्। शृणाति हिनस्तीति शिरः, शॄ हिंसायाम् क्र्यादिः। (उदवर्तयः) उच्छिनत्सि, (यत्) यदा (विश्वाः) समस्ताः (स्पृधः) रोगसहचराणां वेदनावमनमूर्च्छादीनामुत्पातानां स्पर्धमानाः सेनाः (अजयः) जयसि ॥ अथ तृतीयः—राष्ट्रपरः। हे (इन्द्र) वीर राजन् ! त्वम् (अपां) राष्ट्रे व्याप्तानां प्रजानाम्, (फेनेन४) कररूपतया प्राप्तेन चक्रवृद्ध्यादिना वर्धितेन धनेन। स्फायी वृद्धौ धातोः फेनमीनौ उ० ३।३ इति नक् प्रत्ययो धातोः फे आदेशश्च निपात्यते। (नमुचेः) राष्ट्रं न मुञ्चतः प्रत्युत व्याप्य स्थितस्य दुःखदारिद्र्यदुर्भिक्षमहारोगादेः (शिरः) मूर्धानम्, मूर्धोपलक्षितम् उग्रत्वम् (उदवर्तयः) उद् वर्तयसि उच्छिनत्सि, (यत्) यदा (विश्वाः) समस्ताः (स्पृधः) हिंसारक्तपातलुण्ठनवञ्चनतस्करत्वादीनां वैरिणां स्पर्धमानाः सेनाः (अजयः) जयसि पराभवसि ॥ अथ चतुर्थः—सेनाध्यक्षपरः। हे (इन्द्र) सूर्य इव वर्तमान शत्रुविदारक सेनेश ! त्वम् (अपां फेनेन) जलानां फेनवद् विद्यमानेन उज्ज्वलेन शस्त्रास्त्रसमूहेन (नमुचेः)आक्रमणं न मुञ्चतः शत्रोः (शिरः) मूर्धानम् (उदवर्तयः) कबन्धात् पृथक् करोषि, (यत्) यदा (विश्वाः) सर्वाः (स्पृधः) स्पर्धमानाः रिपुसेनाः (अजयः) पराजयसे ॥८॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः। उपमानोपमेयभावश्च ध्वन्यते ॥८॥

भावार्थभाषाः -

यथा कश्चिद् वैद्यराजः अपां फेनेन भेषजेन रोगं हन्ति, यथा वा राजा प्रजायाः सकाशात् कररूपतया प्राप्तेन वर्धितेन च धनेन प्रजाया दुःखं दूरीकरोति, यथा वा सेनाध्यक्षः शस्त्रास्त्रजालेन शत्रोः शिरः कर्तयति, तथैव परमेश्वरो जीवात्मा वा मनुष्यस्य मनसः सात्त्विकवृत्तिभिः पाप्मानमुच्छिनत्ति ॥८॥ अत्र सायणाचार्य इममितिहासं प्रदर्शयति—“पुराकिलेन्द्रोऽसुरान् जित्वा नमुचिमसुरं ग्रहीतुं न शशाक। स च युध्यमानस्तेनासुरेण जगृहे। स च गृहीतमिन्द्रमेवमवोचत् त्वां विसृजामि रात्रावह्नि च शुष्केणार्द्रेण चायुधेन यदि मां मा हिंसीरिति। स इन्द्रस्तेन विसृष्टः सन् अहोरात्रयोः सन्धौ शुष्कार्द्रविलक्षणेन फेनेन तस्य शिरश्चिच्छेद। अयमर्थोऽस्यां प्रतिपाद्यते” इति। विवरणकारेणापि तादृश एवेतिहासो वर्णितः। वस्तुतस्तु कल्पितं कथानकमेतन्न सत्यमेव घटितः कश्चिदितिहास इति बोध्यम् ॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।१४।१३, य० १९।७१, ऋषिः शङ्खः। अथ० २०।२९।३। २. उदवर्तयः उद्वर्तितवान् छिन्नवानित्यर्थः—इति वि०। उद्वर्तनं विशरणम्—इति भ०। शरीरादुद्गतमवर्तयः अच्छैत्सीरित्यर्थः—इति सा०। ३. (इन्द्र) आयुर्वेदविद्यायुक्त इति ऋ० २।११।११ भाष्ये द०। ४. (फेनम्) चक्रवृद्ध्यादिना वर्धितं धनम् इति ऋ० १।१०४।३ भाष्ये द०। ५. दयानन्दर्षिर्यजुर्भाष्ये मन्त्रमेतम् अथ सेनेशः कीदृशः स्यादिति विषये व्याचष्टे। यथा सूर्यो मेघम् उच्छिनत्ति तथा सेनेशः सर्वाः शत्रुसेना उच्छिन्द्यादिति तदीयः—अभिप्रायः।